कभी मेरी भी मजबूरियाँ समझ गए होते
तो ये हिजाब-ए-दरमियाँ समझ गए होते
नश्तर सिर्फ़ तुम्हारे ही दिल पे नहीं चला था
कभी मेरी भी गली से तुम गुज़र गए होते
दूर कहीं निकल गए हम देरीना रस्ते पे
मैं तो नासमझ थी तुम ही पलट गए होते
नज़र बचा कर लौट गए कल महफ़िल से
जब आए थे तो पल भर ठहर गए होते
हाथ मिलाया जैसे कभी जाना ही ना हो
जो गए तो सारे मरास़िम तोड़ गए होते
बिलख रहीं थी मेरी पशेमान आँखें
नक़्श दिल के तुम्हारे भी उभर गए होते
हश्र की वो रात भी कैसी भयानक रात थी
दुनिया ख़त्म होती ना हम बिछड़ गए होते