Hope

चलो मुस्कुराने की वजह ढ़ूँढ़ते हैं
ज़िंदगी तुम हमें हम तुम्हें ढ़ूँढ़ते हैं

ख़ानाबदोशी में उलझें हैं सारे रहगुज़र
इस सिफ़र में कोई सफ़र ढ़ूँढ़ते हैं

कितना शोर है माज़ी के सियाह जंगल में
एक नई सहर कोई नई ग़ज़ल ढ़ूँढ़ते हैं

भटक रहे हैं कब से अब्र के टुकड़े सा
बरस जाएँ कहीं वो ख़ुश्क मुक़ाम ढ़ूँढ़ते हैं

जिस पुरानी गली से डर लगता है ज़िंदगी
आओ फिर उसके निशान-ए-क़दम ढ़ूँढ़ते हैं

छुपा रखा है एक धड़कता पत्थर सीने में
इसे फिर से दिल बनाने की कसक ढ़ूँढ़ते हैं