चलो मुस्कुराने की
वजह ढ़ूँढ़ते हैं
ज़िंदगी तुम हमें
हम तुम्हें ढ़ूँढ़ते हैं
ख़ानाबदोशी में
उलझें हैं सारे रहगुज़र
इस सिफ़र में कोई
सफ़र ढ़ूँढ़ते हैं
कितना शोर है माज़ी
के सियाह जंगल में
एक नई सहर कोई नई
ग़ज़ल ढ़ूँढ़ते हैं
भटक रहे हैं कब से
अब्र के टुकड़े सा
बरस जाएँ कहीं वो
ख़ुश्क मुक़ाम ढ़ूँढ़ते हैं
जिस पुरानी गली से
डर लगता है ज़िंदगी
आओ फिर उसके
निशान-ए-क़दम ढ़ूँढ़ते हैं
छुपा रखा है एक
धड़कता पत्थर सीने में
इसे फिर से दिल
बनाने की कसक ढ़ूँढ़ते हैं