एक बवंडर आया है शहर में
उड़ा कर लिए जा रहा है शब्दों को
मात्राएँ बिखरी पड़ी हैं उखड़े पेड़ों की तरह
सरेआम बर्बादी का मंज़र है
जर्द बेजान सफहों में लिपटी ये ज़मीं
ये उजड़े हुए आशियाने
स्याही सनी हुई है धूल में
बिलखते मासूम मिसरे ढूंढ रहे हैं अपने अशारों को
न कहीं मतले का सुर है, ना मक़्ते की धुन
है तो बस इस मटमैली वादी की चीख
एक बवंडर आया है मेरे शहर में
ग़र शांत हो ये बवंडर तो
एक नज़म तामील करूँ …