परवाज़


वो दूर उफुक़ पर दिखी उसे एक नज़्म
आबशारों के तरन्नुम सी कानों में टपकी एक नज़्म
मारे खुशी के झूम उठा वो
सोचा कि-
   बड़े दिनों बाद प्यास बुझेगी
   बड़े दिनों बाद जिस्म फिर सरसब्ज़ होगा
लब फड़क रहे थे खुशी से
हौसले सरसोर थे
संभाल नहीं पा रहा था सुरूर-ए-मंज़िल को वो पागल

आंखें बंद की
आसमां को कैद किया सीने में
और परवाज़ ली उस परिंदे ने

पर ........धड़ाम ...........
ज़मीं पर आ गिरा बेचारा
पर तो आज़ाद थे उसके
लेकिन रोटी की ज़ंजीर थी पैरों में

बैठ गया वो गुमसुम फिर से अपने
5x5 के घोंसले में
उस नज़्म की चाह में
एक कामयाब परवाज़ की ख़्वाईश में .....