यूँही कभी-कभार आ जाती हो मिलने तुम,
ये जानते हुए भी कि तुम्हें चले जाना है
फिर भी तुम आई मिलने कल रात,
संगमरमरी रेत पर लेटे रहे हम दोनों
रात की पश्मीनी चादर ओढ़े,
कोहरा लहराता रहा जिस्म पे सरेआम खुशबू की तरह,
उस सुलगते चाँद की रोशनी में
जिसे मैं फूँक-फूँक कर जला रहा था
हमने वही पुरानी किताब पढ़ी,
एक-एक पन्ना समां लपेटे था गुजरे दिनों का
उन्हीं उधड़े-मुड़े पन्नों का ज़बां पे ज़ायक़ा ले लेके
हमने सारी किताब पढ़ डाली,
फिर वक्त ने जम्हाई लेते हुए करवट बदली
और सागर की जिस अँगड़ाई सी तुम आई थी
साहिल को उसी रफ्तार से छोड़ चली गई,
ना तुम ठहरी
ना मैं तुम्हें रोक पाया
लब मुसकुरा दिए पर आँखें थोड़ी भीग गईं !!
*The title of this poem has been taken from a book by Gulzar Sahab.