बडे दिनों से
अलमीरे में पड़ी थी
धूल की एक झिल्ली
बैठ गई थी
कोने मुड़ गए थे
उसके,
फुरसत में आज निकाला
उसे
धूल हटाई
जालें साफ किेये,
गए सावन जो छोड़
गया था
आज भी वो
बुकमार्क वहीं पड़ा था,
पन्ने को सूँघ कर
देखा
वो नज़्म आज भी गुन्चे
सी खुशबूदार थी
जब भी आपको पढ़ता
हूँ …
रगों मे खून की
गर्दिश थोडी माँद सी पड़ जाती है,
सरग़ोशियाँ भी
शोर मचाने लगती हैं,
नज़में आहंग बनकर
टपकती रहती हैं
और मैं बस पीता
रहता हूँ,
सहर की धूप सी एक
मुस्कान
मेरी पेशानी से
फूट पड़ती है,
लम्हें और सब्ज़ हो
जाते हैं,
उम्मीदें और
दुरुस्त हो जाती हैं,
गुलज़ार साहब, जब
भी आपको पढ़ता हूँ …
दुनिया से दूर
पर खुद के और
क़रीब हो जाता हूँ |