आज इस अँधेरे शहर
में भटक सा गया हूँ
हर निशानी महरूम है
सभी बाशिंदे गुमशुदा
हैं,
बदग़ुमान हवाएँ भी
कानों से सट के बस गुजर जा रही हैं
इक इशारा भी नहीं
देती निगोड़ी,
ख़स्ता सी रोशनी लिए
ठूँठ सा खड़ा रहने वाला वो खम्भा भी
आज कहीं दिख नहीं
रहा
सिमट गया है इस काली
चादर में कहीं,
रास्ते के दोनों तरफ
लगे उन इमली के पेड़ों की
वो खट्टी सी ख़ुशबू
कहाँ है ?
आज.... वो गली कहाँ है ?
कल ही तो गुजरा था
उस सर्द गली से,
हाल-चाल पूछा था
तुम्हारा
तुम मुसकाई थी हमेशा
की तरह
और साथ में वही छोटी
सी एक “हम्मम.....” ,
आस-पास से बटोर कर
कुछ ख़ुश्क लम्हे
डाल दिया था आलाव
में,
उसकी आँच में रात भर
अपने ठिठुरते दिल को
गर्म रखा
और इस तरह उस बुझती
गली को जलाए रखा,
पर आज सब लापता है
......
वो गली जिस मंदिर के
चबूतरे पे खत्म होती थी
वो मंदिर कहाँ है
?
आज.... वो गली कहाँ है
?
बहुत बेचैन हूँ, वो
गली ज़रा भूल सा गया हूँ,
मेरे सपनों में ही
सही
पर वो गली मेरी थी,
उसकी कहानियाँ मेरी
थीं,
उसके किरदार मेरे थे,
और उसका झूठ भी मेरा
था,
तुम्हारी सोहबत में
गुजरते लम्हों से सजा
वो रंग-मंच कहाँ है
?
आज.... वो गली कहाँ है
?
सपने थोड़े धुँधला
से गए हैं,
झूठ अब और सफेद हो गए
हैं,
वो यादें अब किन्हीं
यादों की यादें सी लगने लगी हैं,
कहीं ये इशारा तो
नहीं
एक नई राह खोजने का ?
एक नई मंज़िल बनाने
का ?
अंजाम हो चुका एक
कहानी का
अब एक नया आग़ाज़
करने का ?
हाँ, लगता है यही
होगा ......
अब अलविदा कहो जानम,
तुम्हारी गलियों में
शायद अब आना ना होगा ....