तलाश


अक्सर जब बात-चीत का काफ़िला
तुम्हारे मोहल्ले से गुज़रता है
हर चौक, हर नुक्कड़ पे ख़लिश
गुमसुम जुबां ख़ुदा से दो हर्फ़ माँगता है
यूँ तो एक हँसी चिपका के बोल देता हूँ दोस्तों को
कि राब्ता नहीं उस गली से
पर आज भी उसकी हर ईंट में
तुम्हारा निशां ढूँढता हूँ |

कहते हैं वक्त सब ठीक कर देता है
कोई वक्त से कहो ज़्यादा वक्त ना लगाए
कहीं ऐसा न हो कि ख़िज़ा में टूटा गुलाब
बहार के आने से पहले ही कहीं दफ़न हो जाए
यूं तो महफ़िल में जाम उठा लेता हूँ
एक नए आग़ाज़ के नाम का
पर आज भी अपने होठों पर
तुम्हारी भीगी अल्कों का ज़ायका ढूँढता हूँ |

आज भी हर गुज़रते चेहरे में तुम्हारा अक्स ढूँढता हूँ,
आज भी ज़र्रे-ज़र्रे में तुम्हारा निशां ढूँढता हूँ |