लिख दूँ ....


कल रात तुम दिख गई,
एक अरसे से दबी आग फिर सुगबुगा गई,
फेसबुक पेज से तुम झाँक रही थी,
उसी चश्मे के पीछे वो दो नीलम आँखें,
होठों से आहिस्ता-आहिस्ता टपकता वही तबस्सुम का शहद,
वो श्यामल संदल सा दमकता बदन,
वही उल्झी तंग सी ज़ुल्फें,
और उस भीड़ में से एक ख़ुशनसीब लट जो
तुम्हारी बाँई पलक से होते हुए तुम्हारे गाल के गड्ढे को छू रहा था,
सोचा, कि ये सब लिख दूँ,
आज मैं अपनी आँखों से तुमको लिख दूँ |

फिर हम दोनो मेरे यादों के बागीचे में सैर पे निकले,
वहां वो पत्थर दिखा जिस से टकरा कर
तुमने पहली बार मेरा हाथ पकड़ा था,
रास्ते में वो बेन्च दिखी जहाँ बैठ
तुमने अपना सर मेरे काँधे रखा था,
और बागीचे के सबसे कोने में, सबसे महफूज़, वो पल खड़ा था
जिसकी छाँव तले तुम मेरी बाँहों मे टूट कर गिरी थी,
माज़ी की जिस शाख़ पर हम झूला करते थे,
उस ख़ुश्क टहनी के कुछ पत्ते अभी भी हरे हैं,
सोचा, कि ये सब लिख दूँ,
आज मैं अपनी यादों से तुमको लिख दूँ |

पर जब आज लिखने बैठा तो,
अल्फाज़ के जुगनु कहीं गुम हो गए,
स्याही कलम से रूठ गई,
अक्षर टूट-टूट कर बिखरने लगे,
और सफ़हे पर बस एक ही शब्द तैरता रह गया,
तुम्हारा नाम
शायद इससे ज़्यादा मैं तुम्हे नहीं लिख सकता .....